खिलाफत मे मुस्लिम उम्मत की सेहत की हिफाज़त और खुशहाली

-::- खिलाफत मे मुस्लिम उम्मत की सेहत की हिफाज़त और खुशहाली -::-


तकरीबन तैराह सौ साल तक मुसलमानों ने इस्लाम के अहकाम का निफाज़ करके बे-मिसाली और लासानी खुशहाली हासिल की। यह खुशहाली और तरकी़ साइंस और मेडिसिन तक ही महदूद थी, जैसा कि हम सुनते है, बल्कि यह जिन्दगी के हर पहलू पर हावी थी, जिसमें सामाजिक खुशहाली, सेहत की हिफाज़त और तालीम भी शामिल है। इस्लामी रियासत के कमजो़र तरीन दौर में भी उसके नागरिकों की भलाई, चाहे मस्लिम हो या गै़र-मुस्लिम, रियासत का सबसे अव्वेलीन काम था। यह कोई हैरत की बात नही है क्योंकि अल्लाह (صلى الله عليه وسلم) फरमाता है: ‘‘हमने तुम्हे नही भेजा मगर पूरे आलम के लिए रहमत बनाकर’’ (सूरह अबिंया 21:107) और अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने फरमाया ‘‘जो कोई भी मेरी हिदायत की पैरवी करेगा वो रास्ते से नही भटकेगा और बुरी हालत में नही गिरेगा। मगर जो कोई भी मेरे पैग़ाम से पीठ मोड़ेगा तो बेशक जिन्दगी उसके लिए तंग हो जाएगी और कयामत के दिन हम उसे अंधा उठाएंगे’’ (सूरह ताहा 20:123, 124) इस मज़मून में हम इस बात की कुछ मिसाले पेश करेंगे कि इस्लामी निजा़म के दौरान पूरे इस्लामी इतिहास के दौर में लोग कैसे रहते थे। इससे इन्शाे अल्लाह हमे इस्लाम की हुक्मरानी के जे़रे तहत जिन्दगी बसर करने के बारे में बेहतर समझ हासिल होगी।

सेहत की हिफाज़त (Health care): इस्लाम में फर्द की सेहत को बहुत अहमियत दी जाती है और इन्सान की खाने और सुरक्षा के अलावा बुनियादी ज़रूरतो में से समझा जाता है। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया: ‘‘जो कोई भी बिमारी से मुक्त हो, अपने लोगो में महफूज़ हो और उसे उसके दिन का खाना मिला हो तो उसके लिए ऐसा है जैसा कि वोह दुनिया का मालिक हो।'' (तिर्मिजी व इब्ने माजा)

नतीजतन इस्लामी रियासत पर यह जिम्मेदारी डाली गई है के वोह मुफ्त और सक्षम सेहत से सम्बतन्धित सेवाऐ सारे शहरियों गरीब, अमीर, मुस्लिम, गै़र-मुस्लिम सबको मुहैया करे। रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया: ‘‘ईमाम (खलीफा) लोगों का ध्या न रखने वाला है और अपने लोगो के लिए जिम्मेदार है।'' (अल बुखारी)

लोगो को सेहत से मुताल्लिक खिदमात को मुहैया कराने का नमूना मदीना में अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) से मिलता है। इब्ने इस्हाक ने अपनी सीरत में रिवायत की है कि मस्जिद में एक खेमा बांधा जाता था और एक औरत जिसका नाम रोफेदा था, जो कबीला असलम में थी, गरीब और अमीर दोनो किस्म के लोगों के अमराज का ईलाज करती थीं और उन्हे मुफ्त में दवाए देती थी। जब सअद बिन मुआज़ को जंगे खन्दक में तीर से जख्म लगा तो अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने सहाबाओं से उन्हे रोफेदा के खेमे में ले जाने को कहा। रोफेदा की फीस (मुआवजा़) रियासत के ज़रिए माले ग़नीमत के हिस्से से दिया जाता था। इस बात का जिक्र अल वाकिदी ने अपनी किताब अल मगा़जी में किया है। पूरे इस्लामी इतिहास के दौर में यह बात साबित है कि रियासत के शहरियों को सेहत से सम्ब न्धित सेवाए मिलती रही और इसकी गवाही खुद कुफ्फारो ने दी है। मिसाल के तौर पर मिस्टर गोमर, जिन्हेंल नेपोलियन की तरफ से मिस्र पर काबिज़ होने के लिए भेजा गया एक लीडर (1798-1801),  स्वा स्थह सेवाओ के बारे मे बताता है और छः सौ साल पुराना सुविधाओं के बारे में, जो उसने देखी, कहता है ‘‘सारे बिमार लोग चाहे वोह अमीर हो या गरीब बिना किसी भेदभाव के बिमारिस्ता्न (hospital) जाया करते थे।
मशरिक के हर इलाको से डाक्टरों को नियुक्त किया जाता था और उन्हे बहुत अच्छी तनख्वाह दी जाती थी। एक फार्मेसी हुआ करती थी, जिसमें दवाओ और औजा़रों का भण्डार था। हर एक मरीज की देखभाल करने के लिए दो नर्स होते थे। वो लोग जो मानसिक बिमारियों से पीड़ीत होते थे, उनके लिए अलैहदा इन्तेजा़म होता था जहॉ उनका ईलाज हुआ करता था। उन्हेंम दूसरे ईलाजो के अलावा मनोरंजित भी किया जाता था। जो लोग बिमारी से ठीक हो जाते थे (जिस्मानी और दिमाग़ी बिमारियों से) वो कुछ समय पुनर्निवास (rehabilitation) में गुजा़रते थे। जब उन्हे अस्पताल से छुट्टी दी जाती थी तो उन्हे पांच सोने के टुकड़े दिये जाते थे ताकि मरीज़ को फौरन काम करने की जरूरत न पडे़।''
एक फ्रेंच ओरिएन्टलिस्ट प्रिसे डी ऐवेनेस, इसी अस्पताल के बारे में कहता है ‘‘मरीजो के हॉल या तो बड़े-बड़े पंखो से ठण्डे किये जाते थे, जिन्हे हॉल के दूसरी तरफ की दीवार से बांध कर हिलाया जाता था या हॉल को गर्म करने के लिए खुशबु वाले तेल जलाए जाते थे। इस हॉल के फर्श को मेंहदी की टहनियों या अनार या दूसरी खुशबुदार पेडो़ की टहनी से ढांका जाता था।'' 

खैरो-आफियत (खुशहाली) : शहरियों की खुशहाली और भलाई का नमूना इस हदीस में मिलता है जिसे सहीह मुस्लिम में अबू हुरैर से रिवायत है कि रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया कि ‘‘जो कोई भी (विरासत में) पैसा छोड़ेगा तो वो उसके वारिसो के लिये है और जो कोई कमजो़र नस्ल छोड़ेगा तो वो हमारे लिये है।'' (सहीह मुस्लिम)
इससे पता चला कि रियासत बुनियादी ज़रूरियात जैसे खाना, कपड़े और रिहाईश जैसी बुनियादी ज़रूरतें मुहय्या कराने के लिये जिम्मेदार है, उन सबको जो इसकी इस्तिताअत न रखते हो। इस्लामी हुकूमत ने लोगो की भलाई अल्लाह (سبحانه وتعالى) के अहकाम को नाफिज़ करने के नतीजे में हासिल होती है। खलीफा और रियासत की इस जिम्मेदारी को समझने की वजह से ही अबू बक्र (رضي الله عنه) ने एक खलीफा की हैसियत से, एक बूड़ी औरत की खिदमत की जो मदीने की क़रीबी इलाक़े में रहती थी। उमर इब्ने खत्ताऔब (رضي الله عنه) भी उसी बूड़ी औरत की खिदमत करना चाहते थे, लेकिन उन्होंने पाया कि अबू बक्र (رضي الله عنه) ने पहले ही उसका खाना बना दिया था, घर और कपड़े साफ कर दिये थे। यही जिम्मेदारी की समझ और अहसास हज़रत उमर बिन खत्ता ब (رضي الله عنه) का था। जब वो खलीफा थे तो एक बार वो बेतुलमाल की तरफ गये और गेहूं और खाने की बोरी उठाकर खुद अपनी कमर पर लेकर गये मदीने के बहार के इलाके की तरफ जहॉ एक औरत और उसके बच्चे रहते थे और उनके लिये खाना भी बनाकर दिया। उन्होंने अपने खादिम के ज़रिये बोरी के उठाने का इन्कार कर दिया, ये कहकर ‘‘क्या क़यामत के दिन तुम मेरे गुनाहों और जिम्मेदारियों का बोझ उठा सकोगें?’’ 
यह फिक्र बच्चों तक के लिये भी पायी जाती थी। हजरत उमर (رضي الله عنه) की खिलाफत के ज़माने में बच्चो में दूध छोड़ने पर उसकी परवरिश के लिये महाना रकम देने की पॉलिसी थी। एक बार हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने एक बच्चे के रोने की चीख सुनी तो उसकी मॉ से कहा ‘‘अपने बच्चे के मामले में अल्लाह से डरो और इसका ख्याल रखो’’ उसने कहा कि उसने बच्चे का दूध जल्दी इसलिये छुड़वा दिया है ताकि उसे इस्लामीक रियासत से बच्चे का महाना खर्चा जल्दीॉ मिलना शुरू हो जाये। इस बात को सुनकर हजरत उमर (رضي الله عنه) के दिल पर अल्लाह के हिसाब का खौफ तारी हुआ और रोते हुए कहा ‘‘बच्चो के लिये भी ऐ उमर’’ यानि क्या उन्हें बच्चो को नुकसान पहुचाने के लिये भी पूछा जायेगा।
खिलाफत में जानवारो की भी हिफाज़त की जाती है, इब्ने रूश्दा अलकुरतूबी मालिकी से रिवायत करते है कि एक बार उमर एक गधे के पास से गुज़र रहे थे, जिसके उपर पत्थरों का ज़्चयादा वज़न मौजूद था। जानवर की परेशानी महसूस करके उन्होंने उसकी पीठ से दो पत्थर के टूकड़े हटा दिये। गधे की मालकिन एक बुड़िया हज़रत उमर (رضي الله عنه) के पास आयी और कहा ‘‘ऐ उमर तुम्हें मेरे गधे से क्या  मतलब? क्या जो तुम कर रहे हो उस पर तुम्हेंक कोई हक़ हांसिल है?’’ हजरत उमर ने जवाब दिया ‘‘तुम क्या समझती हो कि मुझे इस ओहदे (खिलाफत) पर क्यो बिठाया गया’’।  उमर (رضي الله عنه) का यह मतलब था कि खलीफा इस्लाम के सभी अहकाम के लिये जिम्मेदार है, जिसमें रसूल (सल्ल0) की उस हदीस पर अमल करना भी शामिल है, जिसे हज़रत अबू हुरैरा ने रिवायत किया है ‘‘खबरदार हो जाओ कि तुम्हे अपने जानवरो की पीठो को (मिम्बर) नही समझना चाहिये, क्योंकि अल्लाह तआला ने उन्हे इसलिये बनाया है कि वो तुम्हें वहा पहुचा सके जहा तुम्हारा पहुंचना मुश्किल हो और ज़मीन को ऐसा बनाया है ताकि तुम उसकी सतह पर अपनी ज़रूरते पूरी कर सकों।'' यानि हमे जानवरो पर रहम करना चाहिये और उन पर बोझ नही डालना चाहिये।

लोगो की देखरेख करने और उनकी भलाई और खुशहाली का ध्यान रखने का यह सिलसिला तमाम खिलाफत के दौर में जारी रहा जब तक कि 1924 में उसका खात्मा न हो गया। इब्ने अल जोजी़ अपनी किताब मे, उमर इब्ने अब्दुल अजी़ज़ (रह0) के बारे में कहते है कि उमर ने अपने वालियों को हुक्म दिया की पूरी रियासत में रहने वाले सभी अंधो, पुराने रोगों से पीड़ित और लाचार लोगों की गिनती करवायी जाऐ फिर उन्होंने हर अंधे आदमी के लिये एक रहनुमा, पुराने रोगो से पीड़ित बीमार और अपाहिज लोगों के लिये दो सेवक (खितमत गुज़ार) मुतय्यन कर दिये। ऐसा उन्होंंने पूरी इस्लामी रियासत में लागू किया जो पूर्व में चीन से लेकर पश्चिोम मराकश तक, उत्तर में रूस से लेकर दक्षिण के हिन्द महासागर तक फैली हुई थी। इब्ने अल जोजी़ ने यह भी रिवायत की कि उमर (رضي الله عنه) ने अपने वालियों को हर गरीब और जरूरतमंद को बुलाने के लिये कहा और उनकी सारी ज़रूरते बेतुलमाल से पूरी की। फिर उन्होंने उन लोगों के बारे में पूछा जो कर्ज़दार है और उसे चुका नही सकते थे। उन्होंने उनके खर्चे बेतुलमाल से पूरे के पूर अदा कर दिये। फिर उन्होंने उन लोगों के बारे में मालूम किया जो शादी करना चाहते थे लेकिन शादी करने की इस्तताअत नहीं रखते थे। उन्होंने उनकी शादी के इखराजात उठाये। उमर बिन अब्दुल अजी़ज़ की खिलाफत के दौर में इस्लामी रियासत की खुशहाली और मालदारी का यह आलम था कि रियासत ज़कात देने के लिये किसी गरीब को नही पाती थी।

खलीफा अलवलीद इब्ने अब्दुल मलिक के बारे में इब्ने जरीर ने रिवायत किया कि रियासत मस्जिदों की तामीर और रखरखाव और सड़को की तामीर करती थी। वो लोगों की जरूरतें पूरी करती थी। बिमार और अपाहिज लोगों को रकम अदा करती थी, उन्हे हुक्म देती थी कि वो किसी से भीख ना मांगे और अपनी ज़रूरतो के लिये रियासत से कहे अगर वो उन्हे पूरी नही कर सकते हो तो। वो पहले खलीफा थे, जिन्होंने बिमारिस्तान (अस्पताल) के तसव्वूर की बुनियाद डाली। उन्होंने अस्पताल बनवाये और उन्हे एक संस्था् की हैसियत दी। उन्होंने हर मोहताज़ आदमी के साथ एक सेवक लगा दिया और हर अंधे के साथ एक रहनुमा। उन्होंने ईमामो की तनख्वाह मुकर्रर कर दी और अजनबियों और मुसाफिरो के लिये मुसाफिर खाने बनवाये। उमवी और अब्बासी खिलाफत के दौर में वो मुसाफिर जो इराक और शाम (आज के सीरिया, जोर्डन, लेबनान, फिलीस्तीन) से हिजाज (मक्के के आसपास का इलाका) की तरफ जाते थे उनके लिये रास्ते में गेस्ट हाउस होते थे, जिनमें पानी, खाने और रिहायीश की सहूलियत थोड़ी-थोड़ी दूर पर मौजूद होती थी ताकि मुसाफिरों को परेशानी का सामना ना करना पड़े। इन सहूलियात के अवशेशों (आसारे क़दीमा) को आज भी बिलादे शाम के इलाको में जगह-जगह देखा जा सकता है। बिलादे शाम में मौजूद इन अस्पतालो के चेरिटी ट्रस्ट (वक्फ) के रिकोर्ड में इसका सबूत अब भी देखा जा सकता है। मिसाल के तौर पर सीरिया के अलिय्यो शहर में मौजूद अलनूरी अस्पताल का रिकार्ड बताता है कि हर दिमागी तौर पर बिमार आदमी को सेवक दिये जाते थे, जो हर दिन उसे नहलाने, उसके कपड़े धोने, नमाज में उसकी मदद करने (अगर वो पड़ने के काबिल हो तो) और कुरआन सुनाने और खुले में आराम करने के लिये उसके साथ बाहर जाने के लिय मौजूद होते थे।

उस्मानी खिलाफत ने भी इस फर्ज़ को पूरा किया। इसका सबूत इस्तम्बोल से मदीना जाने वाली मशहूर हिजाज़ रेल्वे की तामीर थी जो सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय ने मक्का जाने वाले हाजियो की सहूलियत और दूर के अरब इलाको की आर्थिक और राजनीतिक इत्तेहाद पैदा करने और हालत सुधारने के लिये तामिर करवायी थी। जबकि मुसलमानों ने इस रेल्वे लाईन की तामिर के लिये दिल खोलकर माली ताअउन किया और मदद फराहम की तो दुसरी तरफ उस्मानी खिलाफत में यातायात की यह सुविधा लोगो को मुफ्त में मुहय्या करवायी। इस्लाम की हुक्मरानी के ज़ेरेतहत खिलाफत के निजा़म में लोग कैसे जिंदगी गुजारते थे उसकी यह बहुत मामूली सी झलक है। अल्लाह से दुआ है कि वो हम सबको इसके लिये काम करने की तौफिक दे और अपनी जिंदगी में इसका गवाह बनाये और हम दोबारा इसके वजूद से फायदा उठाये। आमीन।

Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.