क्या ईरान दारुल इस्लाम है ?

क्या ईरान दारुल इस्लाम है ?

मुसलमानों के दिमागों में ईरान के ताल्लुक से यह सवाल आता है कि ईरान इस्लामी रियासत है की नही। कई मगरिबी मुफक्किर ईरान में एक ऐसी इस्लामी रियासत को देखते है जिसका हुक्म इस्लाम ने दिया है इस्लाम का मजा़क बनाने और हमले करने के लिए ईरान को निशाना बनाया जाता है यह सोच कर कि ईरान में इस्लाम का निफाज़ होता है। कई मगरिबी मुफक्किरीन के लिए यह मसला इसी तरह है। बरर्नाड लुईस, ब्रिटेन का एक मुस्‍तशरिर्क (orientlist), ने सन् 2004 में कहा, ‘‘राज्य के द्वारा प्रसारित इस्लामी आन्दोलनो में कई किस्में है . . . . . इनमें से सबसे पहले ताकत को हांसिल करने वाला और अपने आन्दोलन को हरकत देने में सबसे कामयाब ईरान का इस्लामी आन्दोलन है’’। 

आम धारणा के विपरित ईरान एक इस्लामी रियासत नही है जैसाकि कुरआन और सुन्नत में हुक्म दिया गया है। सुन्नी इस्लाम में खिलाफत में खलीफा को चुना जाता है जबकि शिया इस्लाम इमाम के मासूम होने की शर्त रखता है जिसे अल्लाह (स0) के जरिये नियुक्त किया जाता है। उनके मुताबिक यही जाईज़ हुक्मरां होता है इस्लामी रियासत का। ईरान की हकीक़त को समझने के लिए ईरानी आन्दोलन के बाद बनाए गए ईरानी दस्तूर (संविधान) पर गौर करने की ज़रूरत है। ईरान के सियासी निज़ाम की तुलना पैगम्बर मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के ज़रिये कायम की गई इस्लामी रियासत से तुलना करने पर यह बात वाजे़ह हो जाएगी कि ईरान पूरी तरह से इन्सान के जरिये कानूनसाज़ी किये जाने वाले निज़ाम यानी जम्हूरियत (लोकतंत्र) को इस्लामी चैले में दिखाया गया है जो सिर्फ मगरिब के मॉडल से इस हद तक मुख्तलिफ है कि वो आजा़दाना (Liberal) सामाजिक मूल्यो को अपने सियासी तहजी़ब में शामिल नही करता, यानी यह लिबरल लोकतंत्र नही है।
रिवायती शिया इस्लाम की हुक्मरानी से मुताल्लिक तसव्‍वुर की पूरी बुनियाद एक मासूम ईमाम, जिसका तकर्रूर अल्लाह के ज़रिए किया जाता है, और जो शरियत का निफाज़ करता है, पर टिकी हुई है। हांलाकि बांरवे (12) ईमाम का गायब हो जाना शियाओं के लिए एक बहुत बड़ा मसला है। आयातुल्लाह खुमेनी ने माजी़ के दूसरे शिया ओलमा की तरह यह दलील दी है कि ईमाम की गैर-मौजूदगी में यह सही नही है कि शरियते इलाही को तर्क कर दिया जाए। उन्होंने यह कहा कि अहले इल्म, ओलमा, फुक्हा, हुक्मरानी को चलाए और अल्लाह के अहकाम का निफाज़ करे जब तक कि ईमाम का दोबारा ज़हूर हो। इस तसव्वुर को विलायते फकीह कहा जाता है। यह कायदा सारे शिया ओलमा में काबिले कबूल नही है क्योंकि दूसरो का मानना है कि मासूम ईमाम ही हुक्मरानी कर असल है। यह उसूल अपने आप में एक बहुत बड़ा मसला खड़ा करता है चूंकि इस्लाम में सिर्फ एक हुक्मरां हो सकता है कई सारे नहीं।
खुमैनी ने अपने ईरान के लिए सियासी मॉडल में अपनी तस्नीफ विलायते फकीह (Rule of the Jurist) में पेश किया है। रियासत के कानून के मनबे (स्‍त्रोत) के बारे में खुमैनी ने खुल कर लिखा है, तकरीबन उनतीस पेजो में तफ्सील से वोह कहतें है, ‘‘इस्लाम में कानूनसाज़ी और कानून के क़याम का हक़ सिर्फ अल्लाह तआला को हासिल है। इस्लाम में पाक कानूनसाज़ (अल्लाह) ही वहिद कानूनसाज़ी का हक़ रखता है। किसी को कानूनसाज़ी का हक़ नही है और न ही खुदाई कानून के अलावा किसी और कानून को लागू किया जा सकता है. . . .’’ उनके ज़रिए कुरआन और सुन्नत में मौजूद इस्लामी क़वानीन को कुबूल किया गया और तस्दीक की गई कि वह क़ाबिले इताअत है। इसके बावजूद भी खुमैनी ने ‘आला काइद’ (supreme Leader) की हैसियते से इक्तिदार हासिल किया। उन्‍होंने गै़र-मामूली तौर पर हुक्मरानी का ढांचा तैयार किया जिसमें चुनी जाने वाली पार्लियामेन्ट मजलिस भी शामिल है, जिसको कानूनसाज़ी का हक़ हासिल है। उसमें एक शर्त यह भी रखी गई के उनके द्वारा पास किए गए क़वानीन की जांच ‘मजलिसे तहफ्फुज़ (guardian Council) जिसमें बारह लोग शामिल होंगे, के ज़रिए की जाएगी ताकि कानून शरियत के मुताबिक पास हो सके। खुमैनी की विलायते फकीह के तसव्वुर को कुछ सुन्नी आलिमो के ज़रिए भी कबूल किया जा सकता था, इसके बावजूद के यह एक कमजो़र राए है, लेकिन खुमैनी ने अपने उसूल को भी नाफिज़ नही किया जब उन्होने इक्तिदार हासिल किया। कानूनसाज़ी के मुताल्लिक यह स्थिति इस्लाम में काबिले कबूल नही है। उसूली तौर पर इस्लामी रियासत में पाए जाने वाले हर कानून को शरियत मुहैया करती है। जो अल्लाह (सुबहानहु व तआला) की तरफ से होता है।
कोई भी नए हालात जैसे कि तकनीकी तरक्की यह तकाजा़ करती है कि मुजतहिद के ज़रिए उस मसले पर इजतिहाद किया जाए और कुरआन व सुन्नत में मौजूद दलाइल से उस हालत का या मसले का मवाज़ना (तुलना) किया जाए ताकि कयास किया जा सके और उससे मुताल्लिक शरई कानून को लागू किया जा सके। ईरानी मजलिस की कोई शरई बुनियाद नही है कि वह अपने आपको कानूनसाज़ी के हवाले करे। ऐसी मजलिस का वजूद इस बात की तरफ ईशारा करता है कि अल्लाह के ज़रिए अपने पैग़म्बर पर नाजिल की गई शरियत नामुकम्मल है। खिलाफत के निज़ाम में नुमाईन्दा मज़लिस खलीफा को मश्‍वरा देती है और हिसाब लेती है न कि कानूनसाज़ी करती है। ऐसी मजलिस का वजूद जो क़वानीन की शरियत से मुवाफिकत की जांच करती है, दरहकीकत इस्लाम के बुनियादी उसूलो के दायरे से हटने का मौका फराहम करती है, जिसके ज़रिए व्‍यक्तिगत समझ और तष्रीह की गुजांइश के मातहत आ जाती है। शरीयत के मौजूद होने की सूरत में इस तरह की जांच का हक़ किसी को हासिल नही क्योंकि इस्लाम में इन्सान को कानूनसाज़ी की इजाज़त ही नही। 

शरीयत का टुकड़े-टुकड़े और अधूरा निफाज़ जैसे कि पेनल कोड व्यवस्था में पाया जाता है, बेमानी है जबकि इस्लाम का पूरा निज़ाम मौजूद नही हो, जो कि इन्सानी समाज के पूरे ढांचे को तैयार करने के लिए डिजाईन किया गया है, ऐसा निज़ाम इस्लाम नही हो सकता, जिसमें कानूनसाज़ी का स्त्रोत कुछ और हो। यह ईरानी क्रांती से पहले किए गए दावे से बिल्कुल विपरित है, जिसकी इजा़ज़त न शिया इस्लाम देता है न सुन्नी इस्लाम देता है। और इस तरह की ‘आला कयादत’ का मन्सब भी इस्लामी शरियत के मुवाफिक नही है।
ईरानी निज़ाम के मुताबिक ‘आला कयादत’ को Assembly of expert  (माहिरीन की मज़लिस) के छियासी मेम्बरों के ज़रिए हर आठ साल में चुना जाता है। यह मजलिस आला क़यादत की कार्यवाहियों पर निगाह रखती है और उसे उसके मन्सब से हटाने की ताक़त भी रखती है जबकि निजामें खिलाफत में खलीफा को सीधे तौर पर बैअत दी जाती है और वोह लोगो के ज़रिए चुना जाता है। खलीफा के ज़रिये खुली हुई जारहियत (कानून के खिलाफ वर्जी) करने की सूरत में पाया जाने पर कोई भी खिलाफत का शहरी उस पर महकमतुल मजा़लिम की अदालत में मुकदमा दायर कर सकता है जो इस दावे की जांच करती है और जरूरत पड़ने पर खलीफा को अपने मन्सब से हटा सकती है। यहां पर गौर करने का नुक्ता यह है कि खिलाफत की क़यादत को रियासत के किसी भी अंग के ज़रिए सियासी यरगमाल (Political hostage) नही बनाया जाता है। ईरान की आला क़यादत कानूनी तौर पर अपने अधिकारो में खलीफा के बराबर नही है और न ही शिया इस्लाम के मासूम ईमाम के बराबर। 

आला कयादत की हैसियत को ईरान के प्रेसिडेन्ट के पद ने कमजो़र कर दिया है, जिसके जिम्मे कानून की तन्फीज़ का काम है और सरकारी पॉलीसी का अपने मंत्रियो की टीम की मदद से बनाना और लागू करना है। हांलाकि ये प्रेसीडेन्ट आला क़यादत की रजा़मन्दी का मोहताज होता है। मगर संविधान के इस ढांचे में यह एक ताकतवर सियासी मद्दे मुकाबिल की हैसियत रखता है जिसे संजीदा मकाम हासिल होता है और आला कयादत सिर्फ वसीले का किरदार अदा करती है यहां तक की अंतर्राष्टीय मुआहिदे भी मजलिस की इजाज़त के मोहताज़ है। दूसरी तरफ खिलाफत के निज़ाम में खलीफा को शरियत ने रोजमर्रा के मामलात चलाने के लिए एक वाहिद काइद की हैसियत दी है, जो अपने मुआविनो (assistant) को रखने और हटाने का हक़ रखता है ताकि वह अपनी जिम्मेदारियो को ज़रूरत के मुताबिक पूरा कर सके। खलीफा को सभी मामलात में इक्तिदार हासिल है। वो एक क़तई क़यादत है, जिसे कानूनसाज़ी का अधिकार नही है और जो इस्लामी रियासत में पेश आने वाले हर मामले का जवाबदेह है।
एक और इख्तिलाफ का बिन्दु यह है कि खुमैनी का ईरान अपने आपको साफतौर पर एक कौमी रियासत (National-State) बताता है। इसकी दलील ईरान के दस्तूर का Article 78 है, जो कहता है, ‘‘इस देश की सरहदो में किसी किस्म की तब्दीली मना है’’ इस पसमंजर में Article 145  इस माअने को और ज्‍़यादा वाजे़ह कर देता है, ‘‘कोई भी गै़र-मुल्की (foreigner) देश की फौज या सुरक्षा में काबिले कबूल नही है’’ यह बयान एक कौमी रियासत के लिए तो समझा जा सकता है लेकिन इस्लामी रियासत के लिए काबिले कबूल नही है। मुसलमानों की अक्सरीयत ईरान की सरहदो से बाहर बसती है, उनको ये हक हासिल है कि वह इस्लामी रियासत का हिस्सा बने जैसा कि आप (صلى الله عليه وسلم) ने ऐलान किया कि सारे मुसलमान एक उम्मत है। इससे ये बात वाजे़ह हो जाती है कि ईरान के ज़रीए मुस्लिम सरज़मीनों के इत्तिहाद की कोशिश नही की गई जबकि यह इस्लामी रियासत के बुनियादी उसूलो मे से है। 

ईरान अपनी पहचान महदूद सरहदो से करता है और इस्लाम के नूर की रोशनी फैलाने के लिए नई सरज़मीनों को आजा़द कराने की पॉलिसी नहीं रखता है जबकि एक इस्लामी रियासत मुसलमान और उनकी सरज़मीनों को मुत्तहीद करने की पॉलिसी रखती है और किसी भी किस्म की नस्ली या मस्लकी बंटवारे को कबूल नही करती। इस्लामी रियासत में सिर्फ एक हुक्मरां होता है जो सिर्फ शरियत का निफाज़ करता है वो हुक्मरां न शिया होता है न सुन्नी यह हुक्मरां कानून की तबन्नी (adoption) इस्लाम में पाए जाने वाले कई मक्तबे फिक्र (मस्लक) सेकता है चाहे वो सुन्नी है या शिया, और वो ज़मीन का क़ानून करार पाता है। हांलाकि हुक्मरां को ऐसे किसी कानून की तबन्नी करने की इजाज़त नही है जो इन्फिरादी इबादात या अकाइद से ताल्लुक रखते है जब तक की उसका एक गहरा सामाजिक असर पाया जाता हो जैसे की ज़कात के मुताल्लिक क़वानीन। इस्लामी रियासत एक पुलिस राज्य नही है, जो लोगो के घरो में दखलअंदाजी करता हो और इस बात की जांच पड़ताल करता हो कि लोग क्या अकीदा रखते है। ईरानी हुकुमत का पूरा ढांचा इस्लाम की कसौटी पर खरा नही उतरता। इसके अलावा गुजिश्‍ता सालों से सामने आने वाली उसकी कार्यवाहियो से साफ पता लगता है कि Pragmatism ने उसूलो पर बरतरी हासिल कर ली है। इसका नमूना ईरान की खारिजा पॉलिसी में देखा जा सकता है। ईरान का सिरिया की तानाशाही हुकुमत के साथ गाठजोड़ है जो कि मुस्लिम आबादी पर बहुत जु़ल्म ढहाती है। 

इसके अलावा ईरान के भारत और एशिया (रूस) से अच्छे ताल्लुक है जो कि चेचनिया और कश्‍मीर के मुसलमानों पर सख्त ज़ुल्‍मो जब्र में मुलव्विस है जबकि ये मुस्लिम आबादी इनसे आजा़दी चाहती है। बल्कि कश्‍मीर के मसले पर ईरान ने पाकिस्तान के खिलाफ जाकर हमेशा भारत का साथ दिया है। जबकि मुस्लिम दुनिया में भारत और रूस को एक जारिहाना हुकुमतो के तौर पर देखा जाता है। उसके बावजूद भी ईरान इनसे गर्मजोशी के साथ ताल्लुक रखता है जबकि इस्लामी शरियत इस बात को हराम करा देती है कि ऐसे मुल्को से ताल्लुक रखे जाए जो मुसलमानों पर जु़ल्म करते है और उन्हे कत्ल करते है।
ईरान ने मुसलसल तौर पर ईराक और अफगानिस्तान पर अमरीकी कब्जे़ में मदद की जबकि उसे इन देशो को अमरीकी जु़ल्म से आजा़द कराने के लिए अपनी फौजे भेजनी चाहिए थी। अहमदी निजाद ने न्यूयार्क टाइम्स में इंटरव्यू देते हुए, सितम्बर 2008 मे कहां, ‘‘हमने अफगानिस्तान मे मदद की . . . वहॉ (ईराक) हालात अब काफी शांत हो चुके है और हमने उसमे काफी मदद की है’’ .

ईरान का नतीजापंसद (Pragmatic) रवैया और मौजूदा तरज़े अमल की हकीक़त इस बात से साफ हो जाती है कि 1979 में आने वाली ईरानी क्रांती, जिसमें बादशाह शाह का तख्ता पलट दिया गया और खुमैनी को इक्तिदार हांसिल हुआ, में ऐसा कुछ भी मौजूद नही था, जिसका दावा किया गया। खुमैनी इक्तिदार में आए लेकिन वो एक ऐसे मोर्चे (front) की क़यादत कर रहे थे, जिसमें कई तरह की जमाते, बेशुमार कई लादीनियत पसन्द (Secularist) जमाते भी शमिल थी, जिनका असल मकसद शाह और उसकी हुकूमत से पीछा छुड़ाना था। इस बात की तस्दीक अमरीकी हुकूमत के आला ओहदेदारो ने भी की है। स्टेंडस फिल्ड टर्नल, भूतपूर्व CIA डायरेक्टर ने फरवरी 1979 के अपने एक बयान में कहा: ‘‘हम इस बात का अंदाजा नही लगा सकते थे कि 78 साल का एक बूढ़ा आयातुल्लाह जिसने 14 साल देश-निकाले में गुजा़रे है, इन तथ्यो को मुत्तहिद कर सका और इन छोटे-छोटे ज्वालामुखियो को बड़े ज्वालामुखी में तब्दील कर दिया जिसने एक राष्टवादी क्रांति का रूप लिया’’ 

ईरान उन इब्तिदाई उम्मीदों और आशाओ पर खरा नही उतरा जिसकी वजह से 1979 की ईरानी क्रांति आई थी। इसके अलावा ईरान के हुक्मरानो ने जानबूझ कर ईरानी लोगो के इस्लामी जज्‍़बात के साथ सौदेबाजी की एक नक्ली इस्लामी रियासत बनाकर। जैसाकि पूरी मुस्लिम दुनिया में होता आ रहा है, जिसमें पाकिस्तान भी शामिल है, ईरान ने सिर्फ इस्लाम के नारे को इस्तेमाल किया और कोई ठोस इकदाम नही किया। इससे यह बात वाजे़ह हो जाती है कि सही इस्लामी तब्दीली शरीयत को पूरी तरह से लागू करने पर ही मुमकिन है न कि उसको टुकड़ो में या तदर्रूज के ज़रिए मुमकिन है। इससे सिर्फ नाकामयाबी ही हासिल होगी।
ईरानी निज़ाम का कुल यह जा़हिर करता है कि वह मलगूबा है कानूनसाज़ी और आपस में मुकाबला करने वाले कारको का जो कि लोकतांत्रिक ढांचे से मिलता-जुलता है और मग़रिबी सियासी मॉडल के करीब है। ईरानी क्रांती के तीस साल गुज़रने के साथ ही उसने अपने लागो को मायूस किया और आमतौर से पूरी मुस्लिम दुनिया को। किसी असली इस्लामी मब्दा (ideology) से महरूम ये हुकूमत इस्लाम से दूर हो गई यहॉ तक की अपनी बका के लिए इसे नतीजापसन्‍द (Pragmatic) बनना पडा़। आज वह इस सियासी हकीकत के बदनुमा धब्बे बर्दाश्‍त करती है, जिसमें उसके लोग उसकी गलियों में अपना खून बहा रहे होते है और दोबारा सियासी तब्दीली की पुकार लगा रहे होते है।
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