दलाईल की रोशन में खिलाफत और जम्‍हूरियत (लोकतंत्र) में अन्‍तर

 दलाईल की रोशन में खिलाफत और जम्‍हूरियत (लोकतंत्र) में अन्‍तर


तालिबे ईल्‍म (विधार्थी) जब कुरआन व सुन्‍नत पर नज़र डालता है तो उसे जम्‍हूरियत (लोकतंत्र) से मुत्‍तालिक कोई आयत या हदीस तो दरकिनार सहाबा, अईमाए मुज़तहिदीन या फुकहा का एक कौल भी नहीं मिलता। हालांकि इन्‍सानियत इस्‍लाम से हजा़रो साल कब्‍ल जम्‍हूरियत से रोशनास हो चुकी थी। मुसलमान इस दुविधा (कनफ्यूशन) का शिकार होता है के अगर ईस्‍लाम का निजा़मे हुकूमत जम्‍हूरियत ही है तो फिर क्‍या यूनानियो ने इस्‍लाम के आने से पहले ही खुद ब खुद इस्‍लामी निजामें हुकूमत दरयाफ्त कर लिया था ? क्‍या इस (इस्‍लामी निजा़में हुकूमत) के निफाज़ से इन्‍होने एक इस्‍लामी मुआश्‍रे को जन्‍म दे दिया था ? क्‍यो वो न जानते हुए भी इस्‍लाम पर ही चल रहे थे ? लेकिन इतिहास के किसी कोने में भी यूनानी तहज़ीब और इस्‍लामी तहज़ीब में समानता का कोई अंश तक नही मिलता। अगर रसूले मकबूल (सल्‍लल्‍लाहो अलेहिवसल्‍लम) जम्‍हूरियत ही देकर मबउस किये गये थे तो फिर आप صلى الله عليه وسلم को ये इरशाद फरमाने में क्‍या संकोच था के वोह वही निजा़म लेकर आये है जो अरस्‍तु और यूनानी फिलासफर इन्‍सानियत को पहले ही दे चुके है ; जबकि इस्‍लामी अकाईद के बारे में आप صلى الله عليه وسلم ने बडे़ साफ अन्‍दाज में फरमाया था के आप صلى الله عليه وسلم दिगर अम्‍बीया ही के दीन पर है और उन्‍हे कोई नया अकीदा देकर माबउस नही किया गया।

    इस्‍लाम और जम्‍हूरियत में कोई टकराव नही तो क्‍या ये सेक्‍यूलर लोगों के इस दावे को मज़बूत नही करता के इस्‍लाम महज़ इबादात, व्‍यक्तिगत मामलात और अखलाकियात (नैतिकता) से सम्‍बन्धित क़वानीन देता है जबकि जनता को अपनी व्‍यवस्‍था (निज़ाम) को अक्‍सीरियत की बुनयाद पर नये सिरे से क़ायम करने के लिए खुला छोड़ देता है? हकीकत ये है के इस्‍लामी व्‍यवस्‍था को जम्‍हूरियत कहना इस्‍लाम पर सरासर तोहमत बांधने के बराबर है। अल्‍लाह तआला ने आप صلى الله عليه وسلم को एक मुनफरत व्‍यवस्‍था देकर मबउस फरमाया था और इसी की इत्‍बाह मुसलमानों पर फर्ज़ करार दी थी। यहॉ तक के दिगर अम्बिया की शरियत भी इस्‍लाम के आने के बाद मन्‍सूख हो गई। इसके अलावा मुसलमानों को दूसरे मज़ाहिब से ज़िन्दगी गुजा़रने के मुताल्लिक क़वानीन से कुछ भी अखज़ करने से रोक दिया गया। एक दफा आप صلى الله عليه وسلم ने हज़रत उमर को तौरात में ज़िना से मुताल्लिक हुक्‍म तलाश करते हुए देख लिया। जिस पर आप صلى الله عليه وسلم के चेहरे मुबारक पर गुस्‍से के आसार जा़हिर हो गए। हज़रत उमर ने फौरन दरयाफ्त फरमाया के इनसे क्‍या ग़लती हो गई है। इस पर आप صلى الله عليه وسلم ने इरशाद फरमाया के अगर आज मेरा भाई मूसा (अलैहिस्सलाम) भी होते तो उनके पास इसके अलावा कोई और चारा ना होता के इसकी इ‍ब्‍तबाह करते जो मे लाया हॅू। इसी के मुताल्लिक कुरआन ने इन अल्‍फाज़ में हुक्‍म दिया ;  ''इस्‍लाम के सिवा जो शख्‍स कोई तारीका इख्तियार करना चाहे तो (उसका वोह तरीका) इससे हरगिज़ कबूल न किया जाऐगा और आखिरत में वोह नुकसान पाने वालो में से होगा’’ (सूरे आले इमरान : 85)

    इसके अलावा कुछ लोग शूरा से मुताल्लिक महज़ दो आयतों को बुनियाद बनाकर इस्‍लामी निजा़मे हुकूमत को शूराई करार देकर उसे निहायत ही मुबहम (धुंधला) और गै़र-वाज़े बना देते है और यू उसे जम्‍हूरियत के साथ जोड़ने की कोशिश करते है। अगर इस्‍लाम का‍ निजा़म महज़ आपसी बाहमी मशवरे तक ही महदूद है तो फिर उस वक्‍त के कुरैशे मक्‍का भी शूरा की ही बुनियाद पर निजा़म चला रहे थे तो फिर आखिर एक नया निजा़म देने की क्‍या ज़रूरत थी। कुरैश के सरदार (दारूल नदवा) में बैठकर आपसी मशवरा करते और उसकी बुनयाद पर अरब पर हुकूमत करते थे। कुरैश के सरदारों का वोह मशवरा किसको याद नही जिसमें उन्‍होने इस मामले पर शूरा बिठाई थी कि रसूल्‍लाह सल्‍लाहो अलैह वसल्‍लम को काहिन कहा जाए, मजनूं कहा जाए या पूरे अरब में साहिर के तौर पर मशहूर किया जाए ? या ये के रसूल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم को किस तरह कत्‍ल किया जाए  ? लिहाजा अगर हुक्‍मरानी के तमाम फैसले शूरा ही की बुनयाद पर होते है तो फिर इस्‍लामी निजा़म और दारूल नदवा के कुफ्रिया निजा़म में कोई फर्क नही रह जाएगा (नउजूबिल्‍लाह) ? इसका मतलब ये नही के इस्‍लामी निजा़मे हुकूमत में मशवरे की सिरे से कोई गुजा़ईश ही नही। दरहकीकत इस्‍लाम मशवरे के अमल को चन्‍द मुबाह मामलात पर महदूद कर देता है जबके क़वानीन की अकसीरियत जिनका सम्‍बन्‍ध समाज की मआशी (आर्थिक), हुकूमती (ruling), तालिमी (शैक्षणिक), अदालती और तहजी़बी व्‍यवस्‍था भी है या व्‍यक्ति की नीजी जि़न्‍दगी की इस्‍लाह से है, खलीफा बगैर किसी अक्‍सीरियत व अक्‍लीयत (minority) की राय का लिहाज़ रखते हुए महज़ कुरआन व सुन्‍नत से अखज़ करके वैसा का वैसा नाफिज़ करता है।
    इस्‍लाम अगर हमे जि़न्‍दगी के खाने-पीने, तहारत और लिबाज़ जैसे कम महत्‍वपूर्ण अहकाम से सम्‍बन्धित साफ और तफ्सीली क़वानीन देता है तो फिर हुकूमत, मआश (अर्थव्‍यवस्‍था) और अदालत जैसे मआशरे के लिए ज्‍़यादा महत्‍वपूर्ण ममलात पर कैसे खामोश रह सकता है ? हकीकत भी यही है के इस्‍लाम हमे एक मुबहम या गैर वाजे़ (धुंधला) निजा़मे हुकूमत नहीं देता है जिसे (शूराई निजा़म) का लेबल लगाकर किसी भी निजा़म से मिलया दिया जाए। बल्‍के रसूलल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم एक मुनफरद (अद्वितीय) निजा़मे हुकूमत देकर भेजे गए थे जो आमरियत (dictatorship), बादशाहत (Kingship), जम्‍हूरियत (Democracy), अलगरज़ दीगर तमाम निजा़मे हुकूमत से मुख्‍तलिफ और मुन्‍फरद है।
    यहॉ सवाल ये पैदा होता है के अगर 1300 साल तक मुसलमान फुक़हा और मुफक्‍कीरीन में कहीं भी इस्‍लाम को जम्‍हूरियत नही समझा तो फिर मगरिब जम्‍हूरियत के इन कुफ्रिया विचारों को मुसलमानों के मुमालिक में धखेलने में कैसे कामयाब हो गया? दरअसल यूरोप को जब ये यकीन हो गया के मुसलमानों की कु़व्‍वत का राज इस्‍लाम है और इस्‍लाम का अकी़दा ही इसकी अजी़म कु़व्‍वत का स्‍त्रोत है तो उसने आलमें इस्‍लाम के खिलाफ एक ऐसी जबरदस्‍त मिशनरी और सकाफती (सांस्‍कृतिक) जंग शुरू की जिसके ज़रिए उसने अपनी तहजी़ब और संस्‍कृति और विचारों को मुसलमानों के अन्‍दर दाखिल किया। लोकतंत्र इसी सिलसिले की एक कडी़ है। उन्‍होंने मुसलमानों को अपनी तहज़ीब, कल्‍चर और जि़न्‍दगी के बारे में अपने नुक्‍ताऐ नज़र की तरफ दावत दी ताके वोह जम्‍हूरियत (लोकतंत्र) को अपने विचारो की बुनयाद, जि़न्‍दगी के बारे में अपना नुक्‍ताऐ नज़र बना लें। इस तरह वोह मुसलमानों को इस्‍लाम से भटका कर और उससे दूर और उसके अहकाम के निफाज़ से रोकना चाहता था, ताके इस्‍लामी रियासत यानी खिलाफत को खत्‍म करना उनके लिए आसान हो जाए और नतीजे के तौर पर वोह इस्‍लाम को जि़न्‍दगी, रियासत और समाज में लागू होने से रोक सके। इसके अलावा मुसलमान इनके कुफ्रिया विचारों, व्‍यवस्‍था और क़वानीन को इख्तियार कर लें। इस्‍लाम की बजाये पश्‍चिम के निजा़म को लागू करे और इस्‍लाम से दूर हो जाए और यू काफिरों को इन पर ग़लबा हासिल हो जाए।
    ये मिशनरी और सांस्‍कृतिक जंग इस वक्‍त शिद्दत इख्तियार कर गई जब 19वीं सदी के आखरी आधे हिस्‍से में खिलाफते उस्‍मानिया अपने आखरी दौर में थी। मुसलमान वैचारिक, बौद्धिक और राजनैतिक गिरावट का शिकार हो चुके थे। यूरोप में वैचारिक और औधोगिक क्रांति, इ‍ल्‍मी इन्‍कशाफात, और आविष्‍कारो के बाद शक्ति का संतुलन यूरोपी रियासतो के हाथ में बेहतर हो चुका था, जिसके जरिए तेज़ रफ्तार तरक्‍की का अमल शुरू हुआ। जबके इस्‍लामी रियासत जामिद होकर रह गई और रोज़ बरोज़ कमजोर होने लगी और इसकी वजह से पश्‍चिमी संस्‍कृति, पश्‍चिमी विचारधाराएं, पश्‍चिमी तहज़ीब और पश्‍चिमी व्‍यवस्‍थाओं का मुलसमानों के इलाको में दाखिल होने का मौका मिल गया।
    पश्‍चिमी मुमालिक ने इस मिशनरी और सांस्‍कृतिक जंग में ऐसा खतरनाक तरीका इख्तियार किया के जिससे इस्‍लाम मुसलमानों की नज़र में बैवक़त (महत्‍वहीन) होकर रह गया। उसके अहकाम के बारे में मुसलमानों में तश्‍वीश (चिंता) पैदा हुई और मुसलमानों को ये विचार दिया गया के इस्‍लाम ही उनकी पिछडे़पन और गिरावट का कारण है, जबके पश्‍चिम की तरक्‍की का राज़ उसकी संस्‍कृति, उसके विचार, और उसकी जम्‍हूरी व्‍यवस्था है। और इन्‍ही क़वानीन और व्‍यवस्थाओं की वजह से वोह तरक्‍की के उचाईयों तक पहुंच गया है। इसके साथ-साथ ये नज़रिया भी इख्तियार किया गया के मग़रिबी तहजी़ब इस्‍लामी तहज़ीब से टकराव नही रखती बल्‍के दरअसल ये इस्‍लामी तहज़ीब से ही अखज़ की गई है। इसके निजा़म और क़वानीन इस्‍लामी अहकामात के खिलाफ नहीं है। उन्‍होंने जम्‍हूरी विचारों और लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था पर इस्‍लाम का रंग चडा़ दिया और कहा के ये इस्‍लाम के मुखालिफ या इस्‍लाम से टकराने वाली नही, बल्‍के ये तो इस्‍लाम से ही है क्‍योंके ये बिल्‍कुल शूरा है और यही अम्रबिल मारूफ व नही अनिल मुनकर और हक्‍काम का मुहासबा है। चुनांचे इस बात ने मुसलमानों को बहुत मुतास्सिर किया। यहॉ तक के पश्‍चिमी विचार और पश्‍चिमी संस्‍कृति मुसलमानों के अंदर सिरायत कर गई।
    हकीकत ये है के जम्‍हूरियत (लोकतंत्र) इस्‍लाम के साथ अपनी मसदर (मूल), अपने अक़ीदे, अपनी असास (बुनयाद), अपने विचार और व्‍यवस्‍थाओं, अलगरज़ हर लिहाज से मुतसादिम (विरोधाभासी) है। लोकतंत्र का मनबा (स्‍त्रोत) इन्‍सान है और इस व्‍यवस्था में महज़ अक्‍ल ही किसी अमल के अच्‍छे या बुरे होने को तय करती है। इसके बानी यूरोप वो फिलोस्‍फर और मुफक्किरीन है जो यूरोप में बादशाहों और अवाम के दरमियान खौफनाक जंग के बाद उभरकर सामने आये। चुनांचे जम्‍हूरियत इन्‍सान का बनाया हुआ निजा़म है और इसमें हुकमरान इंसानी अक्‍ल है। गो के इस्‍लाम मुसलमानों को अल्‍लाह के वजूद, कुरआन के अल्‍लाह की तरफ से होने और मोहम्‍मद  صلى الله عليه وسلم का रसूल होने पर अक्‍ली दलाईल की रोशनी में ईमान लाने की तरगी़ब देता है। लेकिन जहॉ तक इस्‍लामी अहकामात का ताल्‍लुक है तो इसका माखूज़ (मूल स्‍त्रोत) इन्‍सानी अक्‍ल (बुद्धि) नही बल्‍के वह्नी है जो अल्‍लाह तआला ने मोहम्‍मद  صلى الله عليه وسلم की तरफ नाजि़ल फरमाई जैसा कि कुरआन इसकी शहादत देता है ; ''(मोहम्‍मद सल्‍ल0) अपनी ख्‍वाईशात से नही बोलते, ये तो सिर्फ वह्नी है जो उनकी तरफ आती है’’। (सूरे अलनजम ; 3-4)
    वोह इसलिए के अक्‍ल के पास हर खैर (भलाई) या शर (बुराई) का खुद फैसला करने की इस्‍तीताअत मौजूद नहीं। लिहाजा ज्‍़यादातर मामलात इन्‍सान मुकम्‍मल ईल्‍म व इदराक न रखने की वजह से कभी भी सही हल तक नही पहुंच सकता। मिसाल के तौर पर इन्‍सान कभी भी मर्द और औरत के माबेन पाई जाने वाली जिस्‍मानी, जज़बाती, शउरी और अक्‍ली बराबरी या समानता या इख्तिलाफ का सौ फिसदी इदराक (समझ) नही हासिल कर सकता। इसलिए जब भी वोह उनके लिए जि़म्‍मेदारियां या अधिकारों को अपनी अक्‍ल से तय करेगा वोह किसी न किसी चीज के साथ ज्‍़यादती का मुरतकिब हो जाऐगा। इन तमाम खुबियों में, जिसमें मर्द और औरत बिल्‍कुल एक जैसे है, उनमें मुख्‍तलिफ जिम्‍मेदारी देना जु़ल्‍म है। इस तरह जिन सलाहियतों में दोनो में इख्तिलाफ है उनमें दोनो जिन्‍सों (Sexes/लिंगों) को एक ही जि़म्‍मेदारी सौंप देना भी नाईंसाफी है। क्‍या औरत की पाकिज़गी की जि़म्‍मेदारी को मर्द बराबर अन्‍दाज में बांट सकता है? अगर नही तो फिर मसावाद का ख्‍वाब कभी भी पूरा नही हो सकता। यह दोनों जिंसे (लिंग) मुख्‍तलिफ है और खालिक के सिवा कोई भी इन्‍सान इन दोनो में इन्‍साफ पर आधारित तक्‍सीम नही कर सकता जो कि इनकी सलाहियतों के बिल्‍कुल मुताबिक हो। इन्‍सानी अक्‍ल इससे अजिज़ (असक्षम) है के वोह इन्‍सान के मामलात और उसके बाहमी ताल्‍लुकात की व्‍यवस्‍था में न्‍याय पर आधारित व्‍यवस्‍था को जन्‍म दे सकें। अक्‍़ल के इसी मामले में कमजो़र होने की तरफ ईशारे करते हुए अल्‍लाह अताला फरमाता है ; ''जंग तुम पर फर्ज़ कर दी गई है और वोह तुम्‍हे नागवार है। हो सकता है के एक चीज़ तुम्‍हे नागवार हो और वाही तुम्‍हारे लिए खै़र हो और हो सकता है के एक चीज़ तुम्‍हे पसंद हो और वही तुम्‍हारे लिए शर हो। अल्‍लाह जानता है, तुम नही जानते’’ (सूरे अलबकरा ; 216)
    इस आयत से वाज़े हो गया के इन्‍सानी अक्‍ल महदूद (सीमित) होने की वजह से इस काम से असक्षम है के वोह इन्‍सानों की सभी ज़रूरियात और आपसी ताल्‍लुकात को मुनज्‍ज़म करने के लिए खुद एक व्‍यवस्‍था मुहय्या कर सके जो तमाम खामियों से पाक हो। चुनांचे इन्‍सानी जिंदगी से मुताल्लिक तमाम मामलात पर अहकाम सादिर करने के लिए इस्‍लाम में जिस चीज की तरफ रूजू किया जाता है वो अल्‍लाह तआला की शरियत है ना कि इन्‍सानी अक्‍़ल। इरशादे बारी तआला है ; ''हुक्‍म तो सिर्फ अल्‍लाह तआला का है’’। (सूरे यूसुफ ; 67) और फरमाया ''अगर किसी चीज़ में तुम्‍हारे दरमियान तनाजा़ खडा़ हो, तो उसको अल्‍लाह और उसके रसूल  صلى الله عليه وسلم की तरफ लौटा दो’’। (सूरे अलनिसा : 59) लोकतंत्र जिस अक़ीदे से निकला है, वो दीन को जि़न्‍दगी और रियासत से अलहेदगी का अक़ीदा है। ये अक़ीदा इस (दरमियानी हल Compromise) पर आधारित है जो ईसाईयो में से धार्मिक लोगों और लीडरों (रीजाले दीन) और उन फरसफियों और मुफक्किरीन के दरमियान हुआ था, जो दीन (धर्म) और धार्मिक लोगों की सत्‍ता का इन्‍कार करते थे। हालांकि इस अक़ीदे ने दीन के वजूद का इन्‍कार तो नही किया, लेकिन जि़न्‍दगी और रियासत में इसके किरदार को मुअत्‍तल (hanging) करके रख दिया। जिसके नतीजे में इन्‍सान ने अपने लिए निजा़म खुद बनाया। ये अकीदा ही वोह फिक्री कायदा (intellectual leadership) है, जिस पर पश्‍चिम ने अपने विचारों की बुनयाद रखी और इसी से उनका निजा़म निकला। इसी के आधार पर उन्‍होंने अपने वैचारिक रूह और जि़न्‍दगी के बारे में अपने नुख्‍ताए नज़र का तय्युन किया और इसी से लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था वजूद में आई। इस्‍लामी व्‍यवस्‍था इसके बिल्‍कुल विरूद्ध है क्‍योंके वोह उस इस्‍लामी अक़ीदे पर आधारित है जो ज़िन्दगी और रियासत के तमाम मुआमलात को अल्‍लाह तआला के अम्र व नवाही के मुताबिक चलाने को फर्ज़ करार देता है। यानी उन अहकामे शरिया के मुताबिक जो इसके अक़ीदे पर आधारित है। इन्‍सान अपना निजा़म (व्‍यवस्‍था) खुद नही बना सकता। इस पर सिर्फ ये फर्ज़ है के वोह अल्‍लाह के बनाए हुए निजा़म पर चले। इसी अक़ीदे की बुनयाद पर इस्‍लामी त‍हजी़ब का़यम है और ज़िन्दगी के बारे में इसका नुख्‍ताए नज़र भी इसी आधार पर है। जम्‍हूरियत जिस बुनियाद पर क़ायम है वो बुनयादी तौर पर दो अफकार (अवधारणाऐ) है: 1 हाकिमियते आला (Sovereignty) अवाम की है। 2 शाक्त का स्‍त्रोत जनता में है। जम्‍हूरियत की रूह से अवाम (जनता) खुद अपने इरादों की मालिक है, बादशाह और केसर नही और अवाम अपने इरादे खुद लागू करेंगे। बालादस्‍त और अपने इरादे का मालिक होने की वजह से इनको कानूनसाजी़ का हक़ हासिल है। चुनांचे वोह ऐसे क़वानीन बनाएगें जो तमाम जनता की ख्‍वाहिशात की नुमाईदगी (प्रतिनिधित्‍व) करते हो। वोह कानूनसाजी़ के लिए अपने नुमाईन्‍दे मुन्‍तखब करेंगे, जो उनकी नुमाइन्‍दगी करते हुए क़वानीन बनाएगें। उन्‍होंने अपने नुमाइन्‍दो के ज़रिए ये क़ानून भी बनवाया के दीन (धर्म) को तब्‍दील किया जा सकता है या छोडा़ जा सकता है। इस तरह कानून की रूह से जि़ना और होमोसेक्‍श्‍वलिटी (homosexuality) भी जाइज़ है। हत्‍ता की इन कामो को बतौर पेशे के इख्तियार किया जा सकता है। चूंके जम्‍हूरियत (लोकतंत्र) में आवाम ही शक्ति (Power) का स्रोत है, इसलिए वोह अपने मनपंसद हुक्‍मरान (नेता) का चुनाव कर सकते है। ताके वोह उनके अपने बनाए हुए क़वानीन को उन पर लागू कर सके। यह जनता हुक्‍मरान को माजू़ल भी कर सकते है और हुक्‍मरान को तब्‍दील भी कर सकते है। क्‍योंके ये ताकत का स्‍त्रोत है, और हुक्‍मरान इनके सहारे हुकूमत करता है।
    जबके इस्‍लाम में बालादस्‍ती (Sovereignty) शरियत को हासिल है, न के उम्‍मत को। चूंके इस्‍लाम में बालादस्‍ती शरियत को हासिल है, इसलिये सिर्फ अल्‍लाह तआला कानूनसाज़ है। पूरी उम्‍मत मिलकर भी एक हुक्‍म नही बना सकती। चुनांचे तमाम मुसलमान जमा हो जाए और इख्तिसादी (आर्थिक) हालत को बहतर बनाने के लिए सूद के मुबाह (permitted) होने पर इज्माह करे या खास-खास मकामात पर जि़ना के जवाज़ पर इज़माह करे ताके जि़ना आम न हो पाए या इन्फिरादी मिल्कियत (Private Property) के खात्‍में पर इज़माह करे या रोजे़ की फर्जी़यत को खत्‍म करने पर इज्‍माह करें या आम आजा़दियो के लिए इज़माह करे ताके मुसलमानों को अक़ीदे की आज़ादी हो और जो अकीदा वोह पसन्‍द करे उसे इख्तियार करें या ये कहे कि माल को बढा़ने के लिए किसी भी तरीके को अपनाया जा सकता है, अगरचे वोह तरीका बुनयादी तौर पर हराम हो या व्‍यक्तिगत आजा़दी को मुबाह करार दे ताके जि़न्‍दगी से लुत्‍फ उठाएं, ख्‍वाह ये शराब पीकर हो या जि़ना के जरिए से हो, तो इस इज़माह की कोई क़द्र व क़ीमत नही होगी। इस्‍लाम की नज़र में इसकी हैसियत म‍च्‍छर के पंख के बराबर भी नही। मुसलमानों में से अगर कोई गिरोह इस‍ किस्‍म का इरादा जाहिर करे तो उससे किताल (जंग) फर्ज़ है, यहां तक की वोह इससे रूजू करे। मुसलमानों के लिए एक अमल भी खिलाफे इस्‍लाम करना जाइज़ नही। इस तरह कोई एक हुक्‍म बनाना भी जाईज़ नही। अल्‍लाह तआला ही कानूनसाज़ है। ईरशाद है : ''(ऐ मुहम्‍मद सल्‍ल0) तुम्‍हारे रब की कसम। यह उस वक्‍त तक मोमिन नहीं हो सकते जब तक के यह आपको अपने इख्तिलाफात में फैसला करने वाला न बना लें’’ (सूरे अलनिसा 65) और इरशाद फरमाया गया के ''हुकूमत तो सिर्फ अल्‍लाह के लिए है।'' और फरमाया गया : ''क्‍या आप صلى الله عليه وسلم ने नहीं देखा उन लोगों को, जो दावा करते है कि ईमान लाए है, उस पर जो आपकी तरफ और आपसे पहले नाजि़ल हुआ। वोह चाहते की अपने फैसले ताग़ूत (गैरूल्‍लाह) के पास ले जाए। हालांके इन्‍हे हुक्‍म हो चुका है के ताग़ूत का इन्‍कार कर दे’’। (सूरे अलनिसा – आयत 60) ताग़ूत के पास अपने फैसले ले जाने का मतलब ये है के अपने फैसले गैरूल्‍लाह यानी इंसान के बनाए हुए क़वानीन के मुताबिक करना। इरशाद है ''क्‍या ये जहालत का फैसला चाहते है, हालांके अल्‍लाह से अच्‍छा फैसला करने वाला और कौन है?’’ हुक्‍मे जहालत से मुराद हर वोह हुक्‍म है जिसको रसूलुल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم लेकर नही आये। बल्‍के उसको खुद इन्‍सान ने बनाया और इरशादे बारी तआला है के : ''जो इनके  صلى الله عليه وسلم  हुक्‍म की मुखालिफत करते है उन्‍हें इस बात से डरना चाहिए के वोह किसी फित्‍ने या दर्दनाक आज़ाब में मुब्तिला ना हो जाएं’’। (सूरे अलनूर : आयत 63) रसूलल्‍लाह सल्‍लाहो अलेही वसल्‍लम के हुक्‍म की मुखालिफत से मुराद इन्‍सान के बनाए हुए क़वानीन को इख्तियार करना, और रसूलल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم की लाई हुई शरियत को छोड़ देना है। रसूलल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم का इरशाद : ''जिसने कोई ऐसा अमल किया जिस पर हमारा हुक्‍म नही हो, तो वोह अमल मुस्‍तरद (rejected) है’’।
    इस हदीस में हमारे हुक्‍म से मराद इस्‍लाम है। बेशुमार आयात और अहादीस से ये बात मालूम होती है के इक्तिदारे आला (Sovereignty) सिर्फ शरियत को हासिल है और कानूनसाज़ सिर्फ अल्‍लाह तआला है। इन्‍सान को कानूनसाजी़ का कोई हक नही। इन्‍सान का फर्ज़ है कि वोह अपनी जि़न्दगी के तमाम आमाल अल्‍लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुताबिक अंजाम दें। इस्‍लाम ने अल्‍लाह के अवामिर व नवाही की तन्‍फीज़ को मुसलमानों पर फर्ज़ करार दिया है। अल्‍लाह तआला के अवामिर व नवाही को नाफिज़ करने के लिए एक ऐसे इक्तिदार की जरूरत है, जो इनको नाफिज़ करे। चुनांचे उम्‍मत को इख्तियार दिया गया है, यानी हाकिम के इन्तिखाब का हक़, ताके वोह हाकिम अल्‍लाह तआला के अवामिर व नवाही को नाफिज़ करे। अगरचे शरियत ने उम्‍मत को शरियत के निफाज़ के लिए अपना हाकिम बज़रिये बैत मुन्‍तखिब करने का इख्तियार दिया है, लेकिन जम्‍हूरी निजा़म की तरह हाकिम का माजू़ल करने का इख्तियार नही दिया। इसलिए हदीस में है के खलीफा की इताअत फर्ज़ है चाहे वोह लोगों को नापसंद ही क्‍यो ना हो। लेकिन ये इताअत उस वक्‍त तक है जब तक की वोह गुनाह के काम का हुक्‍म ना दे। इब्‍ने अब्‍बास से रिवायत है कि रसूलल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم ने फरमाया :''जो शख्‍स अपने अमीर के किसी नापसंदीदा काम को देखें तो उस पर सब्र करे क्‍योंके जो जमात से एक बालिश भी जुदा हुआ और उस हालत में मर गया तो वोह जहालत की मौत मरा’’।

    और औफ बिन मलिक से रिवायत है, कहते है कि मैने रसूलल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم को ये फरमाते हुए सुना : ''. . . . और तुम्‍हारे बुरे ईमामों में से वोह लोग जिन्‍हें तुम नापसंद करते हो और वोह तुम्‍हे नापसंद करते है। तुम उन पर लानत भेजतें हो और वोह तुम पर लानत भेजतें है’’। रावी कहता है के हमने कहा : ''या रसूलल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم । क्‍या उस वक्‍त हम उन्‍हें (हुकूमत से बाहर निकाल) फेंक न दे? आप صلى الله عليه وسلم ने फरमाया : ''नही। जब तक वोह तुम्‍हारे दरमियान नमाज़ क़ायम करते है। सूनों। जिस पर कोई वाली बना फिर उसने देखा कि वोह वाली कोई ऐसा काम करता है जिसमें अल्‍लाह की नाफरमानी में है, तो उस आदमी को चाहिए के वोह अल्‍लाह की नाफरमानी को तो नापसंद करे, लेकिन वाली की इताअत से हाथ न खेचें’’। नमाज़ क़ायम करने (ईक़ामतुस्‍सलात) से मुराद इस्‍लाम के मुताबिक हुकूमत करना है। यानी यहां जुज़ (Part) को कुल मुराद लिया गया (Part Symbolizes whole) है। हुक्‍मरान के खिलाफ खुरूज (बगावत) उस वक्‍त तक जाईज़ नहीं, जब तक के वोह खुल्‍लमखुल्‍लाह कुफ्र का इरतिकाफ ना करें। जैसो कि अबादा‍ बिन सामित की रिवायत में है : ''. . . . हमने आप صلى الله عليه وسلم से बैअत की। आपने हमसे अहद लिया के हम अपनी खुशी व नाराज़गी, तंगी व फराखी (खुशहाली), और हम पर किसी और को भी तर्जी दिये जाने पर भी सुने और इताअत करे और ये के हम उलिल अम्र (हुक्‍मरानो) से झगडा़ ना करें। आप صلى الله عليه وسلم ने फरमाया : मगर उस वक्‍त जबके तुम कुफ्रे बाह (खुल्‍लमखुल्‍लाह कुफ्र) न देखों, जिसमें अल्‍लाह तआला की तरफ से तुम्‍हारे पास वाजे़ दलील हो। खलीफा को सिर्फ महकमतुल मजा़लिम (Court of Injustice Act) ही माजू़ल कर सकता है। ये इसलिए के जिन मामलात की वज़ह से खलीफा को माजू़ल किया जाता है उन्‍हे काजी़ के सामने उसको साबित करना लाज़मी है। चुनांचे खलीफा को हटाने या उसे बरकरार रखने का इख्तियार महकमतुल माजा़लिम को हासिल है। जम्‍हूरियत चूंके अक्‍सरियत की हुकूमत होती है और अक्‍सरियत ही कानूनसाज़ी करती है। इसलिए हुक्‍मरान, पार्लियामेन्‍ट के अराकीन (members), इदारो (संस्‍थाओ) और तंजिमो (संगठनो) के मेम्‍बरान का चुनाव अक्‍सरियत (majority/बहुमत) की बुनयाद पर होता है। इसी तरह पार्लियामेन्‍ट में कानूनसाजी़, मुआहिदे और फैसले भी अक्‍सरियत की बुनयाद पर होते है। लिहाजा जम्‍हूरियत में अक्‍सरियत की राय हुक्‍मरानो और अवाम सबके लिए लाज़मी है, क्‍योंके अक्‍सरियत की राय ही को अवाम का इरादा समझा जाता है और अक्लियत (Minority) के लिए अक्‍‍सरियत के सामने सर झुकाने के अलावा और कोई चारा नही। इस्‍लाम में ये मामला बिल्‍कुल मुख्‍तलिफ है। इस्‍लाम में कानूनसाज़ी की बुनयाद अक्‍सिरियत या अक्लियत नही बल्‍के सिर्फ शरई नुसूस है क्‍योंके कानूनसाज़ सिर्फ अल्‍लाह है, ना के उम्‍मत। अहकाम (rules) को इख्तियार करने और उनको नाफिज़ करने का इख्तियार सिर्फ खलीफा को हासिल है। खलीफा अहकामात (rules) को सहीह तरीन नुसूस से शरईया, जो किताबुल्‍लाह और सुन्‍नते रसूल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم में से हो, इज्तिहाद के जरिए हासिल होने वाली मज़बूत तरीन दलील से अपनाऐगा। खलीफा के लिए अहकामात में से किसी हुक्‍म को नाफिज़ करने के लिए मज़लिसे उम्‍मत की राय लेना जाईज़ है, लेकिन ज़रूरी नही। क्‍योंके खुल्‍फाऐ राशिदीन किसी हुक्‍म को इख्तियार करते वक्‍त सहाबा की तरफ उनकी राय मालूम करने लिए रूजू किया करते थे। जैसाकि उमर बिन खत्‍ताब ने शाम, मिस्र और ईराक के फतह होने वाले ईलाक़ों के बारे में हुक्‍म लगाने के लिए मुलसमानों से राय ली। इसलिए खलीफा अहकामात की ''तबन्‍नी'' (किसी हुक्‍म को मुल्‍की कानून के तौर पर इख्तियार करने/adoption) के लिए मज़लिसे उम्‍मते की तरफ रूजू करे, तो मज़लिसे उम्‍मते की राय इसके लिए लाज़मी नहीं, अगरचे ये इज्‍तीमाई या अक्सिरियती राय हो। क्‍योंके रसूलल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم ने सुलेह उदेबिया में एतराज़ करने वाले मुसलमानों की राय छोड़ दी, हालाके वोह अक्‍सीरियत में थे, और मुआहिदा कर डाला और इरशाद फरमाया : ''मैं अल्‍लाह का बंदा और उसका रसूल हॅू, मैं हरगिज़ इसके हुक्‍म की मुखालिफत नही करूंगा’’। और सहाबा का भी इस बात पर इज़माह है के ईमाम (खलीफा) मुतय्यन अहकाम इख्तियार कर सकता है और उन पर अमल का हुक्‍म दे सकता है। और मुसलमानों पर अपनी आरा को (Opinion) को छोड़ कर खलीफा के हुक्‍म पर चलना फर्ज़ है। मसलन अबु बक्र (रजि0) ने कुरआन व सुन्‍नत के अहकामात से इस राय को ज्‍़यादा दुरूस्‍त जाना के वोह मुसलमानों में माले ग़नीमत की मसावी (बराबर) तौर पर तक्‍सीम करे क्‍योंके इस माल पर तमाम मुसलमानों का हक़ बराबर है। हज़रत उमर ने इस बात को दुरूस्‍त ना जाना के वोह लोग, जिन्‍होंने कबूले इस्‍लाम से कब्‍ल रसूलल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم के खिलाफ जंग की उन्‍हे उस शख्‍स के बराबर माल अता किया जाए जिसने रसूलल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم के साथ मिलकर जंग की ; या वोह जरूरतमंद को भी उतना ही दे जितना की मालदार को दिया जाए। इसी तरह हज़रत अबु बक्र ने अपनी खिलाफत के दौरान सहाबा की अक्सिरियत की राय को मुस्‍तरद करते हुए अपनी राय को नाफिज़ किया और मुरतदीने ज़कात, झूटी नबूव्‍वत के दावेदारों और रूमियो के खिलाफ एक साथ लश्‍करकशी फरमाई। नीज़ हज़रत उमर (रजि0) ने ईराक के मस्‍तुहा ईलाको पर खिराज़ नाफिज़ करने के अपने इज्तिहाद को नाफिज़ फरमाया अगरचे हज़रत बिलाल और अकाबिर सहाबा का इ‍‍ज्तिहाद इनसे मुख्‍तलिफ था। मजी़द हज़रत अबु बक्र ने अपने दौरे खिलाफत में तलाक और विरासत में अपने इज्तिहादात को नाफिज़ फरमाया जबके हज़रत उमर ने आपने दौर में इन्‍ही मसाईल पर मुख्‍तलिफ इज्तिहादात को लागू फरमाया। हज़रत अबू बक्र और उमर के इस तरीकेकार पर तमाम सहाबा का इजमा है जो हमारे लिए शरई दलील है। चुनांचे मालूम हुआ के खलीफा अपने इज्तिहाद के मुताबिक वोह नाफिज़ करता है जिसे वोह अल्‍लाह का हुक्‍म समझता है और उसे अक्‍सरियत की राय पर चलना लाजि़म नहीं होता चाहे वोह (लोग) अपने इज्तिहाद की बिना पर इस हुक्‍म से मुत्‍तफिक ना हो। लोगों पर लाजि़म है के वोह अपनी राय और इज्तिहाद को छोड़ दे। ये तबन्‍नीशुदा अहकामात दरअसल क़वानीन होते है। चुनांचे क़वानीन की तबन्‍नी करना सिर्फ खलीफा के लिए है किसी ओर को ये हक़ हासिल नहीं।
    खलीफा के तबन्‍नीशुदा (Adopted) अहकाम (rules) की इत्तिबाह इससे भी साबित होती है के अल्‍लाह तआला ने उलिल अम्र की इताअत का हुक्‍म दिया है, इरशाद है : ''अल्‍लाह और रसूल  صلى الله عليه وسلم की इताअत करो और अपने में से उलिल अम्र (हुक्‍मरानो) की भी’’ (सूरे अलनिसा -59) और यहॉ उलिल अम्र से मुराद हुक्‍काम है। इसी से ये मशहूर फिक़ही क़वानीन बने है : (1) ''ईमाम का हुक्‍म इख्तिलाफ को खत्‍म करता है’’ (2) ''ईमाम का हुक्‍म जा़हिरी और बातिनी तौर पर नाफिज़ होता है’’ (3) ''सुल्‍तान मसाईल के लिए बकद्रे ज़रूरत नया हल तलाश करता है’’ जहॉ तक इक्तिसादी (आर्थिक), इज्तिमाई (सामाजिक), हुकूमती और अदालती निजा़मो, तालिमी और खरजा पॉलिसी वगैराह का ताल्‍लुक है तो ये तमाम के तमाम खलीफा उपर जिक्र किये गये उसूल के तहत कुरआन व सुन्‍नत से मज़बूत दलील की बुनयाद पर तबन्‍नी करता है क्‍योंके इस्‍लाम इन निजा़मों की मुकम्‍मल तफ्सील देता है। चुनांचे इन क़वानीन को कुरआन व सुन्‍नत से अखज़ करने में इस्‍लाम अक्सिरियत व अक्लियत नही बल्‍के मज़बूत शरई दलील पर अमल करने का हुक्‍म देता है। अल्‍लाह तआला ने भी आप صلى الله عليه وسلم को हर मामले में अक्सिरियत की राय कबूल करने से मना फरमाया। ईरशादे बारी तआला है : ''और (ऐ मोहम्‍मद सल्‍ल0) अगर आप लोगों की अक्सिरियत के कहने पर चले, जो ज़मीन में बसते है, तो वोह आपको अल्‍लाह के रास्‍ते से भटका देगें’’ (सूरे अलअनाम - 116)

    ये आयत जम्‍हूरियत की बुनयादी फलसफे को रद्द करने के लिए काफी है। लेकिन मुबाह (Permitted) मामलात में शूरा का अमल दखल होता है जिसे कुछ लोगों ने गलतफहमी के सबब पूरे हुकूमती निजा़म पर चस्‍पा कर दिया और यू उसे जम्‍हूरियत के जैसा करार दे डाला। जबके दरअसल मुबाह मामलात की दो किस्‍मों में से महज़ एक किस्‍म में ही अक्सिरियती राय लाजि़म है जबकि दूसरी किस्‍म में राय तो ली जा सकती है लेकिन इसमें अक्सिरियत की इक्तिबाह लाज़मी नही। इसकी तफ्सीर कुछ यू है : चूंके फन्‍नी (technological) और फिक्री (ideological) मामलात से मुताल्लिक कानूनसाज़ी में तर्जुबे, सौंच और गौरो फिक्र ज़रूरी है। इसलिए इसमें दरूस्‍त राय का एतबार होगा; अक्सिरियत और अक्लियत को नहीं देखा जाएगा। चुनांचे इस मामले में माहिरीने फन (experts) की तरफ रूजू किया जाएगा। फौजी मामलात में फौजी माहिरीन, फिक्री मामलात में फुकहा और मुज्‍तहिदीन, तिब्‍बी (Medical) मामलात में माहिरे तिब्र (Medicines), इन्जिनियरिंग में माहिरे इंजिनियरिंग और फिक्री मामलात में बडे़ मुफक्किरीन की तरफ रूजू किया जाएगा। इस तरह इन जैसे मामलात में राय और फिक्र की दुरूस्‍तगी का एतबार होगा अक्सिरियत का नही। सही बात इसके माखज़ (स्‍त्रोत) से ली जाएगी और वो माहिरीन फन होगें ना के अक्सिरियत। इसकी दलील गज़वाए बदर का वाकिया है, जबके रसूल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم ने हब्‍बाब बिन मुन्जि़र की राय से उस जगह को बदल दिया, जहॉ आप صلى الله عليه وسلم उतरे थे और हब्‍बाब की राय को तर्जी दी क्‍योंके हब्‍बाब को ठिकानो का ज्‍यादा महारत थी। आप صلى الله عليه وسلم ने इस मामले में किसी और साहबी से मश्‍वरा नही किया। इसके बरअख्‍स जम्‍हूरी निज़ाम में पार्लियामेन्‍ट के अराकीन, चाहे मुसलमान मुल्‍को में हो, या पश्‍चिम में, आम तौर से माहिरीन नही होते और उन मामलात में गहरी सूझ-बूझ भी नही रखतें। चुनांचे इन मामलात में अराकीन (सदस्‍य) की अक्‍सरियत  की राय कोई क़ीमत नही होती। उनकी मुखालिफत या मवाफकत बराए नाम होती है, किसी ईल्‍म या मार्फत की बुनयाद पर नही। चुनांचे इन अमूर में अक्सिरियत की राय को इख्तियार करना ज़रूरी नही।

    वोह मामलात जिनमें अमली इकदाम (Practical Steps) की ज़रूरत होती है, सोच विचार और गौर फिक्र की जरूरत नहीं होती है, उन्‍ही मामलात में अक्सिरियत की राय को कबूल करना खलीफा पर लाजि़म होगा। हकीक़त भी यही है के अक्‍सरियत इन मामलात को बेहतर तरह से समझ सकती है। मुमकीन है के वोह कोई ऐसी राय दे जिसमें सहूलियत और आसानी हो या उसमें मसलिहत हो। मसलन क्‍या हम फला को खलीफा या अपना नुमाइ्ंदा मुन्‍तखब करे या फला को ? सड़के पहले बनाई जाए या अस्‍पताल ? इन जैसे उमूर को इन्‍सान जानता है। इसलिए इसमें कोई अच्‍छी राय दे सकता है। तो इसमें अ‍क्‍सरियत की राय का एतबार होगा और अक्‍सरियत की राय लाजि़म होगी। इसकी दलील गज़वाए ओहद का वाकिया है के रसूलल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم और बडे़ सहाबा की राय ये थी कि मदिने से ना निकला जाए, जबके अक्‍सरियत, खसूसन जवान सहाबा की राय थी कि निकल कर कुरैश का मुकाबला किया जाए। गोया राय निकलने और ना निकलने के बारे में थी। जब अक्‍सरियत ने निकलने की राय दी तो रसूल्‍लाह  صلى الله عليه وسلم अपनी और अकाबिर सहाबा की राय को रद्द करते हुए मुकाबले के लिए मदिना से बाहर निकल खडे़ हुए।

    जम्हूरियत के नुमायातरीन विचारों में से एक फिक्र आम आजादियो का नज़रिया है। ये जम्‍हूरियत की बुनयाद समझा जाता है। फर्द (व्‍यक्ति) की आजा़दी लोकतान्त्रिक व्‍यवस्‍था में एक मुकद्दस चीज़ है। लिहाजा़ फर्द या रियासत इस आजा़दी को खत्‍म नही कर सकते। चुनांचे पूंजीवादी जम्‍हूरी व्‍यवस्‍था व्‍यक्तित्‍ववाद पर आधारित व्‍यवस्‍था समझी जाती है। आम आजा़दियो की हिफाज़त को रियासत की अहम जि़म्‍मेदारियो में से शुमार किया जाता है। इस्‍लाम का मामला इससे बिल्‍कुल उल्‍टा है। हर मुसलमान अपने तमाम आमाल व अक़वाल में शरई दलील का पाबंद है। इसके लिए कोई ऐसा अमल करना या कोई ऐसी बात कहना, जो नुसूसे शरिआ (divine text) के खिलाफ हो, जाईज़ नही। इसलिए एक मुसलमान उसी राय को इख्तियार कर सकता है और उसी की तरफ दावत दे सकता है, जिसकी नुसूसे शरिआ इजा़ज़त दे। मुसलमानों के लिए जाईज़ नही के ऐसी राय का अलमबरदान बने या उसकी तरफ दावत दे, जिसकी नुसूसे शरिआ र्इजा़ज़त नही देते। अगर फिर भी वोह ऐसा करे तो उसे सज़ा दी जाएगी। लिहाज मुसलमान राय के इतबार से अहकामें शरिआ का पाबन्‍द है, आजा़द नही। इस्‍लाम ने जि़ना, गुलामबाज़ी, हमजिंस परस्‍ती (homosexuality), शराबनोशी, उरयानी वगैराह सबको हराम करार दिया और इन पर सख्‍त सज़ा मुकर्रर की। इस्‍लाम ने आला अखलाक़ अपनाने और अच्‍छी खूबियॉ इख्तियार करने का हुक्‍म दिया है। इस्‍लाम ने समाज़ को पाकिज़गी और पाकदामनी का समाज़ और बुलन्‍द नैतिकता का मुआशरा बनाया है।

    पिछली गुजरी हुई तफसील से मालूम हो गया कि पश्‍चिमी तहज़ीब, पश्‍चिमी नैतिकता, पश्‍चिमी विचारधारा या पश्‍चिमी लोकतंत्र और आम आजा़दियॉ इस्‍लामी अहकामात से खूली तौर पर टकराती है। वोह काफिराना विचार, काफिराना तहज़ीब, काफिराना व्‍यवस्‍था और काफिराना क़वानीन है। यह कहना इन्‍तहाई जहालत व गुमराही है के इस्‍लाम में जम्‍हूरियत है और शूरा इसी का नाम है और जम्‍हूरियत अम्र बिन मारूफ व नही अनिल मुन्‍कर भी नही हैं। शूरा, अम्र बिन मारूफ व नही अनिल मुन्‍कर और हुक्‍काम का मुहासबा, ये सब अहकामे शरिआ है जिन्‍हें अल्‍लाह तआला ने मुकर्रर किया है और मुसलमानों को इन पर कारबन्‍द रहने का हुक्‍म दिया है। लोकतंत्र कोई हुक्‍मे शरई नहीं है। ये अल्‍लाह तआला का नाजि़ल करदा नही, बल्‍के इसको खुद इन्‍सान ने गढा़ है। ये शूरा से बिल्‍कुल मुख्‍‍तलिफ है, क्‍योंकि शूरा इज़हारे राय है और जम्‍हूरियत ज़िन्दगी के बारे में एक नुक्‍ताऐ नज़र है। ये दस्‍तूरों, निजा़मो और क़वानीन की कानूनसाज़ी है, जिसे इन्‍सान अपनी अक्‍ल से गढता करता है। अक्‍ल ही की बुनयाद पर अपने मफादात के लिए इसकी कानूनसाज़ी की जाती है और वाह्नी का इसके साथ कोई सम्‍बन्‍ध नहीं। इसलिए मुसलमानों के लिए उसे इख्तियार करना, उसकी तरफ दावत देना, उसकी बुनयाद पर जमाते बनाना, ज़िन्दगी के बारे में इसके नुख्‍ताऐ नज़र को अपनाना, उसे नाफिज़ करना, उसे दस्‍तूर और क़वानीन के लिए बुनयाद बनाना, क़वानीन और दस्‍तूरो का उसे स्‍त्रोत बनाना, और तालीम या उसके मकसद की बुनयाद बनाना बिल्‍कुल हराम है। ये नजि़स (नापाक) है और इसको जड़ से उखाड़ फैकना मुसलमानों पर फर्ज़ है। ये ताग़ूत है और यही काफिराना अफ्कार का मज़मुआ है। ये काफिराना निज़ाम और क़वानीन का मुरक्‍कब है। इस्‍लाम का इससे कोई ताल्‍लुक नही। मुसलमनों पर इस्‍लाम को मुकम्‍मल तौर पर ज़िन्दगी, रियासत और मुआशरे में नाफिज़ करना फर्ज़ है, ईरशादे बारी तआला है : ''और जो शख्‍स रसूल  صلى الله عليه وسلم की मुखालिफत पर कमरबस्‍ता हो और राहे रास्‍त के वाज़े हो जोने के बाद भी अहले ईमान की रवीश के सिवा किसी और रवीश पर चले, तो उसे हम उस तरह चलता कर देगें, जिधर वो खुद फिर गया। और हम उसे जहन्‍नुम में झोंक देगें, जो बदतरीन जाए क़रार है’’। (सूरे अलनिसा -115)
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